घर घर आज वे फिरसे पर्चे बांट आये है ।
चढ़ते सूरज के फिरसे तलवे चाट आये हैं ।
वो भी खुश हैं कि, उनके चप्पलों की गर्द मिट गई
ये भी धन्य हुए,के बिछनें से कदमों में ठाठ आये है
टके-टके पर बिक रहे हैं, सब्जी-तरकारी जैसे ।
इन्हें लगता है, ये शान से किसी हाट आये है ।
कदमों में बिछने के शौकीन इतने की,भूल गए ।
ये बज़्म में उनकी, अपनी गरिमा छांट आये है ।
मतलब से बने रिश्ते भला, कब तलक साथ चलेंगे ।
खुदगर्ज़ी इसकदर हावी है,कि नेकियाँ पाट आये हैं ।
आज इतराने दो उन्हें फ़राज़, ये भी यकीन जानों ।
वक़्त आने पर सभी,चार काँधों पर ही घाट आये हैं ।
©®राहुल फ़राज़
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