ज़िंदगी तमाम यूंही बेफजूल सी कट गई
सांस और आस के, दो हिस्सों में बट गई
पूरे करने थे, कई अरमां, इसी हयात में
उम्मीदें ज्यादा रही, बस्स सांसें जरा घट गई
हर किसी को हम अहमियत देने में रह गए
अपनी नेकदिली तबर्रुक सी,ज़माने में बट गई
यूं भी किसी को मेरी मौत से सरोकार नही
खबर यूं बनी, और अखबारों में बट गई
वक़्त से आगे निकलने की होड़ में फ़राज़
मंज़िलें-ए-मकसूद न हुई, सांसे घट गई ।
©®राहुल फ़राज़
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