क्यों कहूँ उससे,कि
मुझे भी, खत लिख दिया कर
बातें दो चार, मेरे
मन माफिक
लिख दिया कर.....
झूठ ही सही, लिख तो कभी
तुझे मैं याद आता हूँ
अक्सर मैं तेरे, जिक्र में आता हूँ
कभी मेरी भी, फ़िक्र कर लिया कर
क्यों कहूँ उससे, कि.......
..........
क्यों कहूँ कि... लिख
अब तेरे बिन, सब बेमानी है
बे स्वाद अब ,भोजन की थाली है
तेरे बिन, अब घूमने का
मन नही करता....
खा भी लूं,
तो भी पेट नही भरता
मन न करे तो भी
मेरा हाल, पूछ लिया कर......
क्यों कहूं कि.....लिख दिया कर
.......
लिख देना कभी, यूं भी
के ! तुझे अब हंसाता कोई नही
मेरी जैसी बातें
अब सुनाता कोई नही..
दिल खोलकर हंसे हुए
जमाना गुजर गया
चंद दिनों में ,तेरे बिन जैसे
साल गुज़र गया
कभी मेरी तस्वीर देखकर
मुस्कुरा दिया कर....
......
क्यों कहूँ उससे,कि
मुझे भी, खत लिख दिया कर
बातें दो चार, मेरे मन माफिक
लिख दिया कर.....क्यों कहूँ उससे???
मुझे भी खत, लिख दिया कर....
कभी
मुझे भी खत, लिख दिया कर...😢😢
©®राहुल फ़राज़
No comments:
Post a Comment