मूल्य जब शून्य है, मेरी , अंतःभावनाओं का
क्या करूँगा मैं तुम्हारी,इन शुभकामनाओं का
दिन पर दिन व्यतीत हुए, वर्षों का समय गया
मन से लेश मात्र भी, वितृष्णा का भाव न गया
क्या करूँगा मैं, तुम्हारी इन शुभकामनाओं का
आधे अधूरे स्वप्न मेरे, जब रक्तरंजित से पड़े रहे
तुम अपने ही गर्वानुभाव में,सीना तान खड़े रहे
व्यथा कहां सुनी तुमने,न उपचार हुआ घावों का
क्या करूँगा मैं तुम्हारी, इन शुभकामनाओं का
अब न बाकी स्नेह है मन में, न कोई अभिलाषा
स्वार्थ ने सारी बदल दी है, रिश्तों की परिभाषा
हल्का रह गया मोल,फ़राज़ अंतःभावनाओं का
क्या करूँगा मैं तुम्हारी,इन शुभकामनाओं का
©®राहुल फ़राज़
DT:२४/०७/२०२२
सच रिश्तों में जब स्वार्थ गहरी पैठ बन जाय फिर शुभकामनाओं के लिए कोई स्थान शेष कहाँ रह जाता है?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
धन्यवाद आभार , सराहना से बल मिलता है
Deleteबहुत सुंदर रचना । कविता पाठ भी बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteधन्यवाद आभार
Deleteवाह
ReplyDeleteआभार । लिंक साझा करनें के लियेे, मन:पूर्वक धन्यवाद
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