आग जो वस्ल की दिल में है बुझाती नहीं
साथ रहकर भी हमनें गुजारी थी रातें तन्हा
अब रूठता मैं भी नही फ़राज़,मनाती वो भी नहीं
अजीब कश्मकश है दिल में
उसका ही नाम लिखता है फ़राज़ हाथों में
हाथों की लकीरों में जिसका नाम नहीं है
वस्ले इंतिजार की नाजूक डोर से बंधा है दिल
वो दिल,जिसे उसके बिना कहीं आराम नहीं है
इस दर्दे दिल की दवा हो तुम
लबों का टकराना गोश ए तन्हाई में,याद है नां
उठकर उसके पहलू से निकल जाना,याद है नां
थक गया है फ़राज़ अरमानों की लाश ढोत ढोते
तुमनें कहां था उसकी मैयत पे आओगी,याद है नां
तुम्हारे इंतिजार में.......................
जानें कैसा ये हमनें ग़में उल्फत, दिल को लगा लिया
दिखता है हर हुस्न वाला फ़राज़, दिले चाराःगर अपनां
ये वहम है मेरे दिल का..........................
राहुल उज्जैनकर 'फ़राज़'
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