बडा जिद्दी है कमबख्त इसे समझाया नही जाता
उस संगदील को यारों हमसे मगर भुलाया नही जाता
फुर्सत ही नही मैं लाख पुकारू,बुलाउं या मनाउं उसको
उस खुशनसीब का मगर हमें बुलाना जाया नही जाता
सब तो ले गया वो मुझसे वादे,वफा,चैनो करार मेरा
लुटाकर दिल की अमानत कुछ और बचाया नही जाता
ईद होती है अपनी,जब उससे मुलाकात या बात होती है
ऐसे रूहानी मौसम में फिर मातम मनाया नही जाता
खूने दिल चाहिये उसे सुर्ख लाल बने मेहंदी उसके हाथों की
किसी की आखरी तमन्ना को'फ़राज़'ठुकराया ही नही जाता
राहुल उज्जैनकर 'फ़राज़'
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
वाह...
ReplyDeleteबेहतरीन गज़ल...
दाद हाज़िर है!!
सादर
अनु
बेहतरीन
ReplyDeleteआप सभी को मेरे उत्साहवर्धन के लिये सादर धन्यवाद
ReplyDeleteआभार