वो दिन भी थे इन आंखों में डूब जाते थे
पानी का फ़रेब समेटे इक सहरा तो हूँ न ?
पाँव भी मेरे दिल सा पत्त्थर हुआ जाता है
आंखों में अश्क़ न सही पर इंसान तो हूँ न ?
दीवाने की तक़दीर में कहाँ ईद का चाँद
हसरतें दीदार की तेरे मज़ार तो हूँ न ?
बहोत सख्त से थे तेरे लहज़े तेरी बातें
तेरे साँचे में जो ढल गया वो मोम तो हूँ न ?
फ़तह हासिल कर कूच कर जातें है सब
ता उम्र तेरे दिल मे रहूं वो अरमां तो हूँ न ?
क्या हुआ जो मेरे हिस्से कोई रियासत न आयी
बेकमाल ही सही फ़राज़ बेमिसाल तो हूँ न ?
©®राहुल फ़राज़
Dt:18 jan 2018
No comments:
Post a Comment