ये जो तुम गैरो में बैठकर, मुस्कुराया करती हो
नाहक ही तुम अपनां, हुनर जाया करती हो.....
है तमन्ना मुझसे मिलनें की, तो मेरी अंजुमन में आ
ये क्यों हर शाम कबूतरों को, दाना खिलाया करती हो
नज़रों के लडाओं पेंच , अब तो बहारों के दिन है
ये क्या बच्चों जैसी, तुम पतंग उडाया करती हो
दिल में आना चाहो तो , दिल का दरवाजा भी खुला है
ये क्यों खिडकियों से तुम, तांका - झांका करती हो
हर बार गहरा - चटक होता है , जब भी तुम्हे देखा है
अपनें नाखूनों पर तुम , ये जो रंग लगाया करती हो
बाद इसके मुझपर कोई , नशा फिर तारी नहीं होता
'फ़राज़' की गज़ल जब तुम , तरन्नुम में गाया करती हो
राहुल उज्जैनकर फ़राज़
नाहक ही तुम अपनां, हुनर जाया करती हो.....
है तमन्ना मुझसे मिलनें की, तो मेरी अंजुमन में आ
ये क्यों हर शाम कबूतरों को, दाना खिलाया करती हो
नज़रों के लडाओं पेंच , अब तो बहारों के दिन है
ये क्या बच्चों जैसी, तुम पतंग उडाया करती हो
दिल में आना चाहो तो , दिल का दरवाजा भी खुला है
ये क्यों खिडकियों से तुम, तांका - झांका करती हो
हर बार गहरा - चटक होता है , जब भी तुम्हे देखा है
अपनें नाखूनों पर तुम , ये जो रंग लगाया करती हो
बाद इसके मुझपर कोई , नशा फिर तारी नहीं होता
'फ़राज़' की गज़ल जब तुम , तरन्नुम में गाया करती हो
राहुल उज्जैनकर फ़राज़
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