भूलता जा रहा हूं सब
अपनें अतित के पन्ने
दिनों पहले सहेज कर
रख दिये थे कहीं.....मैंने...
अचानक से मिल गये कुछ....
हर इक सफे पर
हर एक लफ्ज
अब भी ताजा मालूम देता है.......
खेत की सरहद पर लगी
इमली की तरह
हलक से उतर कर
दिमाग को सुकुन देती.....
बारीश के मौसम में
तुम्हारे आंचल की छत जैसा
अरसा हो गया....
बारीश में भिगे...
ठिठुरते हाथों में
चाय की प्याली थामें....
और भी बहोत से पन्ने थे
मगर.....
भूलता जा रहा हूं सब.....
भूलता जा रहा हूं सब.....
राहुल उज्जैनकर फ़राज़
अपनें अतित के पन्ने
दिनों पहले सहेज कर
रख दिये थे कहीं.....मैंने...
अचानक से मिल गये कुछ....
हर इक सफे पर
हर एक लफ्ज
अब भी ताजा मालूम देता है.......
खेत की सरहद पर लगी
इमली की तरह
हलक से उतर कर
दिमाग को सुकुन देती.....
बारीश के मौसम में
तुम्हारे आंचल की छत जैसा
अरसा हो गया....
बारीश में भिगे...
ठिठुरते हाथों में
चाय की प्याली थामें....
और भी बहोत से पन्ने थे
मगर.....
भूलता जा रहा हूं सब.....
भूलता जा रहा हूं सब.....
राहुल उज्जैनकर फ़राज़