सर्द रातों की ठिठुरन में आज
अचानक ही, गुज़रे पलों की गर्माहट नें
दस्तक दे दी.....
आधी रात को दिल के बंद दरवाजों
के किवाड खोलनें में
बहोत वक्त लग गया....
मुद्दतों से बंद पडें थे
बहोत मोटी गर्द जम गयी थी
यादों की ....
किवाड खुलते ही, लगा जैसे
उसपार पतझड का मौसम
लौट आया है...
कितनी तपीश थी उसपार
उसके मेरे प्यार की
या फिर....
हमारें लफ्जों से निकलते अंगारों की
कितना चाहा के रोकलूं तुमको
बारीश बनकर
भिगो दूं तुम्हारा मन
अपनें प्यार की बूंदो से....
मगर हाथ जब तुमनें छुडा लिया
क्या करता....
तुम सही थी शायद....
कलम के सहारे, पेट नहीं भरता नां
कविताऐं मन को सुकून देती है
पेट को रोटी नहीं
महंगे परिधान, आराईश की चिजें
बिना इनके जिवन तो मिथ्या
सा है....
बहाव की रफ्तार से कश्तियां
अपनें अपनें किनारों से लग गयी...
मगर....
किवाड के इस तरफ फिर वक्त
क्यू रूका सा मालूम होता है
कैसे काट लिये मैंने
बिना बारीश, बिना पडझड के
सदियों से लम्बे दिन...
दो गज जगह भी कम नहीं होती
सदियों की गर्द को अपनें में समेटनें
के लिये....
मेरी मानों तो.....
यूं ही चली आया करो
हर साल, अपनें हाथों की तपीश लेकर
और ऐसे ही फेर दिया करो
अपना हाथ मेरी मज़ार पर
ताकी सर्दी की ठिठूरन का
ये एहसास खत्म होता रहे
साल दर साल....
साल दर साल.......
राहुल उज्जैनकर फ़राज़
अचानक ही, गुज़रे पलों की गर्माहट नें
दस्तक दे दी.....
आधी रात को दिल के बंद दरवाजों
के किवाड खोलनें में
बहोत वक्त लग गया....
मुद्दतों से बंद पडें थे
बहोत मोटी गर्द जम गयी थी
यादों की ....
किवाड खुलते ही, लगा जैसे
उसपार पतझड का मौसम
लौट आया है...
कितनी तपीश थी उसपार
उसके मेरे प्यार की
या फिर....
हमारें लफ्जों से निकलते अंगारों की
कितना चाहा के रोकलूं तुमको
बारीश बनकर
भिगो दूं तुम्हारा मन
अपनें प्यार की बूंदो से....
मगर हाथ जब तुमनें छुडा लिया
क्या करता....
तुम सही थी शायद....
कलम के सहारे, पेट नहीं भरता नां
कविताऐं मन को सुकून देती है
पेट को रोटी नहीं
महंगे परिधान, आराईश की चिजें
बिना इनके जिवन तो मिथ्या
सा है....
बहाव की रफ्तार से कश्तियां
अपनें अपनें किनारों से लग गयी...
मगर....
किवाड के इस तरफ फिर वक्त
क्यू रूका सा मालूम होता है
कैसे काट लिये मैंने
बिना बारीश, बिना पडझड के
सदियों से लम्बे दिन...
दो गज जगह भी कम नहीं होती
सदियों की गर्द को अपनें में समेटनें
के लिये....
मेरी मानों तो.....
यूं ही चली आया करो
हर साल, अपनें हाथों की तपीश लेकर
और ऐसे ही फेर दिया करो
अपना हाथ मेरी मज़ार पर
ताकी सर्दी की ठिठूरन का
ये एहसास खत्म होता रहे
साल दर साल....
साल दर साल.......
राहुल उज्जैनकर फ़राज़
बहुत खूब ... ये ठिठुरन तो मिलन न होने तक रहेगी ...
ReplyDeleteधन्यवाद नासवा जी एवं यशवंत जी अभी तो मेरे लेखन का शैशवकाल ही चल रहा है.
ReplyDeleteआप सभी के प्रोत्साहन से, विश्वास है कि भविष्य में कुछ बेहतर लिख पाउंगा
सादर
राहुल........