Tuesday, March 27, 2012

तुम गर आस्तिन में सांप पालते तो अच्‍छा होता
अंगारों से हाथ मिलाते तो अच्‍छा होता
बेवफाओं से चाहते हो, वफा की हिफाजत
खंजरों से रखते हो नां चुभने की चाहत 

खुदा के नाम पर तो बहा दी दूध की नदीयां
दूध ये तुम इन सांपों को पिलाते तो अच्‍छा होता
              आस्तिन में गर सांप पालते तो अच्‍छा होता

दिल में मेरे ये जख्‍म नहीं बेवफाओं के छाले है
क्‍यों की हमनें ही अपनी आस्तिन में सांप पाले है
वफा, इमान , वादे और मोहब्‍बत ये क्‍या जानें,इनके लिये तो 
भगतसिंह,चंद्रशेकखर ,तिलक,राजगरू गद्दार सारे है
वतन को बेच खा सकते है 'फराज',  तो इस पर मरें क्‍यूं ?
हम ही पागल है जो हमनें "लोकपाल" के ख्‍वॉब पाले है
                सच है यारों के हमनें ही अपनीं आस्तिन में सांप पाले हैं ......

राहुल उज्‍जैनकर ''फराज''

1 comment:

  1. This poetry liked by Dr. Kumar Vishwas Ji,

    https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=10150752222493454&id=58762883453

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