चल पडो, की अभी.....
बहोत कुछ, समेटना बाकी है
अपनें हिस्से की पूरी धूप
अभी काटना बाकी है
इश्क का चांद अभी
रखूं भी तो, कहां रखूं ?
छत से अपनें हिस्से की
अभी, अमावस....
समेटना बाकी है
तुम कहती हो......
सहारे इश्क के
जिंदगी गुज़ार दूंगी
रस्मों रिवाज़ो के सारे
बंधन उतार दूंगी
तुम्हे भी तो अभी.....
देना, इंम्तिहान बाकी है
चल पडो़..... की
अभी बहोत कुछ
समेटना बाकी है
अपनें हिस्से की
पूरी धूप अभी.....
काटना बाकी है......
चल पडो़............. बहोत कुछ अभी समेटना बाकी है
बहोत कुछ अभी समेटना बाकी है
राहुल उज्जैनकर फ़राज़
सरस जी आपका सादर धन्यवाद
ReplyDeleteईमेल तो प्राप्त हुआ मगर आपका कमेंन्ट यहां दिखाई नहीं दे रहा है
जिसका मुझे बहोत खेद है..............
प्रयास कर रहा हूं जल्द ही दिखाई दे शायद......
सादर
राहुल