एक ग़ज़ल पेश-ए-खिदमत है
हर शख्स नें अपनें हिस्से के धागे,
बड़े गुरुर से तोड़े थे ।
आज, जगह जगह इनमें गांठे,
पड़ी हुई है इन दिनों।
वो जिसने बचपनें में,
गिरा दिए थे, अरमानों के घरोंदे।
मेरे हर एक ज़ख्म की उनको,
हाय लगी हुई है इन दिनों.......
वक़्त था मुफलिसी का तो,
हर एक शख्स का दर बंद था।
हर खासो-आम के लिए मेरा,
दर खुला हुआ है इन दिनों।
अब भी वक़्त है बहा दो सारे,
गीले-शिकवों के आंसू।
मेरे शहर में बरसात का,
मौसम चल रहा है इन दिनों।
©®राहुल फ़राज़
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