Wednesday, September 05, 2012

इतने बेगैरत है दोस्‍त तो दुश्‍मनों की जरूरत किसे है

इतने बेगैरत है दोस्‍त तो दुश्‍मनों की जरूरत किसे है
आस्‍तीन में हो सांप तो ज़हर की जरूरत किसे है
मैं लुटा भी दूं इनपें अपनां इमानों दिल खुलकर,मगर
ज़मीर बेच आये है ये,अब ईमान की जरूरत किसे है

मेरे शहर की फिजाओ ने भी अब नूर बदलना सीख लिया
चेहरे पर नये नक़ाब लगाने की अब जरूरत किसे है
रोज के मिलनें वालें है ये,फिर भी पहचान दिखाते नहीं
भीड़ में मेरा नाम पुकारनें की अब जरूरत किसे है

मीनारें तन गई राहों में और मैदानों में मीनाबाज़ार
गांवों की सकरी गलीयों की अब जरूरत किसे है
बारूदों से तय होती है अब सरहदों की दूरियां
चैनों अमन की जिंदगी की,अब जरूरत किसे है

अपनीं गरज़ से बनते बिगडते है रिश्‍तों के मौसम
बचपन वाली मासूम बारीश की अब जरूरत किसे है
अब तो आदत हो गई है फराज कतरा कतरा मरनें की
यहां आकर जल्‍द जानें की अब जरूरत किसे है
राहुल उज्‍जैनकर 'फ़राज़'

8 comments:

  1. अपनीं गरज़ से बनते बिगडते है रिश्‍तों के मौसम
    बचपन वाली मासूम बारीश की अब जरूरत किसे है

    bahut sahi bat kahi hai.. ajkal rishte bante bigadte hain mausam ki tarah... jarurat ke hisab se
    Manju Mishra
    http://manukavya.wordpress.com

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  2. 'फराज' साहब 'दुश्मन' तो चौराहे का सिपाही है 'दुर्घटना' से बचाता है असली खतरा तो 'दोस्त' ही होता है। हकीकत का बयान है यह कविता।

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  3. इतने बेगैरत है दोस्‍त तो दुश्‍मनों की जरूरत किसे है
    आस्‍तीन में हो सांप तो ज़हर की जरूरत किसे है !!
    गजब !

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  4. मीनारें तन गई राहों में और मैदानों में मीनाबाज़ार
    गांवों की सकरी गलीयों की अब जरूरत किसे है

    बहुत खूब

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  5. बहुत बढ़िया जी कभी फुर्सत मिले तो हमारे घर भी पधारो पता है...http://pankajkrsah.blogspot.com

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  6. कड़वा सच बयाँ करती रचना....
    बहुत बढ़िया.

    अनु

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  7. आप सभी का सादर धन्‍यवाद..................
    मेरी इस तुच्‍छ सी रचना को सराहनें के लिये..

    मेरी बात आपतक पहुची, मेरा लेखन सार्थक हुआ

    आभार ............

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