Thursday, July 25, 2013
Tuesday, July 09, 2013
आ भी जाओं....
बहोत दिन हो गये
तुमसे बात नहीं हुई
तारे जो गिनता रहता
हूं
आजकल
सपनों को भी पता नही
क्या हो गया है
सब कुछ काला सा नज़र
आता है
शायद, रंग उड गया है
इनका भी
अपनें प्यार की तरह
अंधेरा ही नज़र आता
है
हर तरफ
उम्र के साथ......
आंखों की चमक भी तो
कमज़ोर हो गयी है
सुनों, याद बनके....
तुम जब भी आ जाती हो
नां
बडे सुकुन से समय
गुज़र जाता है
जब, तुम मेरी तस्वीर
से
ये गर्द झाडनें
आती हो नां
तभी तुमको ठीक से
देख पाता हूं
अब तुम्हारी भी कमर
झुक गयी है
कितनें दिन ?
यूं, अपनों में गैरों
की तरह रहोगी .....
मेरी टुटी कुर्सी पर
टुटे हुए रिश्तों
का बोझ
लेकर बेकार बैठी
रहती हो
आजाओ अब.....
साथ मिलकर , हर सफ़ा
अतित का
वापस पलटेंगे.....
और फिर पहुंचेगे उस
सफ़े तक
जिस सफ़े पर , तुमसे
पहली मुलाकात हुई थी
आजाओ अब......
बस्, आ भी जाओं....
आ भी जाओ.....
राहुल उज्जैनकर
फ़राज़
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