Sunday, July 24, 2022

ज़ख्म गहरे उतर जाते हैं

बिखरकर संवरने का मैं रखूं हौसला कबतक ?
उफ्फ, यूं उम्मीदों पर जीना, आखिर कबतक ?

ज़ख्म गहरे उतर जाते है, कुछ और भी गहरे
समंदर में यूं सीप, खोजना, आखिर कबतक ?

तेरे उसूल, मेरी तमन्नाओं का टकराना लाज़मी नही
दिलों-दिमाग की जंग में पिसना,आखिर कबतक ?
लाज़मी=ज़रूरी 

बेशुमार थी दीवानगी गर, तो मोहब्बत आज भी है
पुराने वक़्त को यूं ही थामे रहना, आखिर कबतक

वक़्त की है खूबी फ़राज़, लौटकर वक़्त नही आता 
हर वक़्त, वक़्त का इन्तिज़ार आखिर कबतक...?
©®राहुल फ़राज़ 

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