रोशनी
है चारों और मगर, अंधेरा घना फिर भी लगता है
कितनी
ही बार पुलकित हुआ था तन-मन
अपलक
निहारते थे जब हमारे दो नयन
हर
बार ले आया जो स्वप्न से यथार्थ में
स्पर्श
वो, अपरिचित मगर फिर भी लगता है
हर पल रहती हो तुम साथ मगर
मौन जहॉं मुखर हो उठता है, स्वप्न जहॉं उडान पाते है
चलचित्र
की भांति संचीत है जहॉं, भूत-यथार्थ और स्वप्न
कल्पना
की धरा पर जहॉं, हमारे स्वप्न आकार पाते है
बधीर
हुआ सा वो मस्तिष्क, मगर फिर भी लगता है
हर पल रहती हो तुम साथ मगर
हर
तरफ शोर है अति, हुडदंग भी असिमित
गुंज
रही है स्वर-संगीत की स्वर लहरियां भी
मस्तिष्क
तक जा रहे हैं, सभी स्वर-तरंगे भी
लेकिन,
कानों मे बहरापन फिर भी लगता है
हर पल रहती हो तुम साथ मगर
क्यू
हमने पंछी की तरह चहकना छोड दिया
क्यूं
हमनें फूलो की तरह महकना छोड दिया
क्यूं
अब स्वप्न हमारे एक दुजे के रहते नहीं
क्यूं
अब आंसू तुम्हारे मेरी ऑंखो से बहते नहीं
इक
घौसले के दो पंछी में अंजानापन सा लगता है
हर पल रहती हो तुम साथ मगर
हम
वाणी में ओज लिये, अंग-अंग में जोश लिये
जिव्हा
के तरकश में हम, तानों के क्यूं बाण लिये
क्षण-क्षण
एक दुजे को, निस-दिन मर्माहत करनां
कहो
‘’फराज’’, भला जिवन क्या ऐसे सजता है
हर पल रहती हो तुम साथ मगर
अकेलापन फिर भी लगता है
राहुल उज्जैनकर ''फराज''
भूल सुधार ---
ReplyDeleteकल 07/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
हर पल रहती हो तुम साथ मगर
ReplyDeleteअकेलापन फिर भी लगता है
सुंदर अहसास
सुन्दर भावपूर्ण रचना |
ReplyDelete"हर पल रहती हो तुम साथ मगर,अकेलापन फिरभी लगता है"
ReplyDeleteजाने क्यूँ ऐसा लगता है......!!!
सुंदर प्रस्तुति के लिये शुक्रिया.
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