Saturday, December 15, 2012

भूलता जा रहा हूं सब


भूलता जा रहा हूं सब
अपनें अतित के पन्‍ने
दिनों पहले सहेज कर
रख दिये थे कहीं.....मैंने...
अचानक से मिल गये कुछ....
हर इक सफे पर
हर एक लफ्ज
अब भी ताजा मालूम देता है.......
खेत की सरहद पर लगी
इमली की तरह
हलक से उतर कर
दिमाग को सुकुन देती.....
बारीश के मौसम में
तुम्‍हारे आंचल की छत जैसा
अरसा हो गया....
बारीश में भिगे...
ठिठुरते हाथों में
चाय की प्‍याली थामें....
और भी बहोत से पन्‍ने थे
मगर.....
भूलता जा रहा हूं सब.....
    भूलता जा रहा हूं सब.....
राहुल उज्‍जैनकर फ़राज़

6 comments:

  1. बहुत बढ़िया सर!


    सादर

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    1. धन्‍यवाद यशवन्‍त जी.....
      एक प्रयास मात्र है.... आपको इस तरह के लेखन में महारत हासिल है

      सादर

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  2. Replies
    1. हार्दिक आभार नासवा जी


      सादर

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  3. कोमल अहसास लिए
    सुन्दर रचना.....
    :-)

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  4. आदरणीय माथुर जी,
    आपको भी आग्‍ल नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाऐं

    सादर नमन
    राहुल

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