Sunday, September 23, 2012

जानें क्‍यूं रूक गया था कहते कहते ,आज सोचता हूं


शेर अर्ज है...............
ये अश्‍को की कहानियां है,लबों से बोली नही जाती
ऑंखों ने की है बगावत,पलकों से रोकी नही जाती
...........

                   गज़ल

जानें क्‍यूं रूक गया था कहते कहते ,आज सोचता हूं
थम सा क्‍यूं गया था बहते बहते, आज सोचता हूं

वक्‍त की रेत पर बिखर गये क्‍यूं सपनों के मोती
क्‍यूं थाम रहा था रेत को मुठ्ठी में,आज सोचता हूं

अज़नबी बनते गये,मेरे आस पास के सभी चेहरे
किस अपनें को खोजता रहा ता उम्र,आज सोचता हूं

उंची बोली लगी थी मेरे प्‍यार की,चुकाई नां गयी
क्‍यूं ना बेची 'फ़राज़-ए-वफ़ा' उस रोज,आज सोचता हूं

राहुल उज्‍जैनकर 'फ़राज़'

3 comments:

  1. बहुत खूब
    बहुत बढ़िया गजल...
    :-)

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  2. वक्‍त की रेत पर बिखर गये क्‍यूं सपनों के मोती
    क्‍यूं थाम रहा था रेत को मुठ्ठी में,आज सोचता हूं

    अज़नबी बनते गये,मेरे आस पास के सभी चेहरे
    किस अपनें को खोजता रहा ता उम्र,आज सोचता हूं

    उंची बोली लगी थी मेरे प्‍यार की,चुकाई नां गयी
    क्‍यूं ना बेची 'फ़राज़-ए-वफ़ा' उस रोज,आज सोचता हूं

    बहुत सुंदर गज़ल, वाह !!!!!!

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