Friday, May 18, 2012

मॉं तुझको खोजा करती हूं

निपट अकेली रातों में मैं
तुझको खोजा करती हूं
स्‍मृतियां जितनी भी है पास मेरे
मॉं, उनको जोडा करती हूं 

 तुम क्‍या रूठी मुझसे मॉं 
खुशीयों का दामन छुट गया 
चंचल-शोखी-अल्‍हड वाला
बचपन भी मुझसे रूठ गया
पापा की गोदी में भी 
गुमसुम अकेली सोया करती हूं 
                            निपट अकेली... स्‍मृतियां
धुंधली-धुधली यादें है,जब 
तुम लोरी सुनाया करती थी
हम पर अपनां स्‍नेह तुम 
सागर सा लुटाया करती थी
सिधे सरल रिश्‍ते क्‍युं भला
आज, ऐसे क्लिष्‍ट बनें 
अक्‍सर ये सोचा करती हूं  
                            निपट.......स्‍मृतियां

तुम कहती थी नां मॉं,जो हमसे
रूठ के जाते, तारे बना करते है
दूर आसमां से हमको वो फिर 
अपलक निहारा करते है 
इतनी सारी मॉंओं में, मॉं 
तुझको देखा करती हूं 
                             निपट...........स्‍मृतियां 

इक-इक पल में भी जानें
कितनी सदियां रहती हैं
 ऑंखों से अब आंसू नहीं
अश्‍को की नदियां बहती है 
तेरे स्‍नेहिल स्‍पर्शों का मैं
निसदिन अनुभव करती हूं 
                             निपट...........स्‍मृतियां 


तुमसे ही तो सिखा मैंने
मॉं की ममता बहन का स्‍नेह
रेशम की डोरी से बंधा 
अद्भुत और अलौकिक नेह 
अपरिपक्‍व इन रिश्‍तों को अपनें
ह्रदय रक्‍त से सिंचा करती हूं
                           निपट...........स्‍मृतियां 

बहनों का श्रृंगार किया 
नये रिश्‍तों का स्‍वीकार किया
उनका उनकी दुनियां में फिर 
खो जाना भी स्‍वीकार किया 
अपनें स्‍वयंवर में मगर..... 
पतझड वन सी रहती हूं 
                            निपट...........स्‍मृतियां 

अहंकरों के पाटों के बीच
पिसती ही क्‍यूं नारी है 
कन्‍यादान से भी बढकर, क्‍या 
अहं-दंभ ही भारी है 
वर्षों से ही इन प्रश्‍नों के
मैं, उत्‍तर खोजा करती हूं 
               निपट अकेली रातों में मैं
               तुझको खोजा करती हूं
               स्‍मृतियां जितनी भी है पास मेरे
               मॉं, उनको जोडा करती हूं
राहुल उज्‍जैनकर ''फराज'' 

3 comments:

  1. अहंकरों के पाटों के बीच
    पिसती ही क्‍यूं नारी है
    कन्‍यादान से भी बढकर, क्‍या
    अहं-दंभ ही भारी है

    बहुत विचारणीय लिखे हैं सर!

    सादर

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